भारत और पाकिस्तान के बीच 1960 में हुई सिंधु जल संधि (Indus Waters Treaty) को अब तक की सबसे सफल अंतरराष्ट्रीय जल संधियों में से एक माना जाता है। लेकिन हाल ही में सामने आई जानकारी ने इस संधि के एक कम चर्चित पहलू को उजागर किया है—भारत ने न केवल पाकिस्तान को पानी दिया, बल्कि इसके साथ-साथ बड़ी मात्रा में वित्तीय सहायता भी प्रदान की।
क्या है सिंधु जल संधि?
इस संधि पर भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान ने विश्व बैंक की मध्यस्थता में हस्ताक्षर किए थे। इसके तहत भारत को तीन पूर्वी नदियाँ—रावी, ब्यास और सतलुज, और पाकिस्तान को तीन पश्चिमी नदियाँ—सिंधु, झेलम और चिनाब दी गईं।
पैसे का प्रवाह: एक अनकहा सच
इस संधि के तहत भारत ने पाकिस्तान को 8 करोड़ डॉलर (उस समय के अनुसार लगभग ₹300 करोड़) की वित्तीय सहायता दी थी, ताकि वह पश्चिमी नदियों पर आवश्यक जल संरचनाएँ बना सके। यह राशि पाकिस्तान को चरणबद्ध तरीके से दी गई, जिससे वह अपने हिस्से की नदियों से सिंचाई और जल आपूर्ति सुनिश्चित कर सके।
राजनीतिक और रणनीतिक बहस
हालाँकि यह संधि दशकों तक शांति का प्रतीक बनी रही, लेकिन अब भारत में यह सवाल उठने लगे हैं कि क्या यह समझौता आज भी प्रासंगिक है? जब पाकिस्तान बार-बार आतंकवाद और सीमा उल्लंघन में लिप्त पाया जाता है, तो क्या भारत को अब भी इस संधि का पालन करना चाहिए?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी हाल ही में एक जनसभा में कहा, “भारत का पानी अब भारत में ही रहेगा।” यह बयान इस बात का संकेत है कि भारत अब इस संधि की समीक्षा करने के मूड में है।
कूटनीतिक दृष्टिकोण से भारत की स्थिति
भारत ने अब तक इस संधि का पूरी तरह से पालन किया है, जबकि पाकिस्तान ने कई बार अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत पर उल्लंघन का आरोप लगाया है। लेकिन विश्व बैंक और अन्य अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों ने भारत की स्थिति को संतुलित और वैध माना है।
सिंधु जल संधि केवल जल बंटवारे का समझौता नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक और रणनीतिक दस्तावेज है, जिसमें भारत ने न केवल पानी, बल्कि पैसा भी पाकिस्तान को दिया। अब जब भारत आत्मनिर्भरता और राष्ट्रीय सुरक्षा को प्राथमिकता दे रहा है, तो यह स्वाभाविक है कि इस संधि की शर्तों और प्रभावों पर पुनर्विचार किया जाए। आने वाले समय में यह मुद्दा भारत-पाक संबंधों की दिशा तय करने में अहम भूमिका निभा सकता है