जीवन में ऐसे दौर हर किसी की जिंदगी में आते हैं जब लगता है कि सब कुछ गलत हो रहा है। मेहनत करते हैं, पर नतीजे नहीं मिलते। रास्ता खोजते हैं, पर अंधकार ही मिलता है। ऐसे में क्या किया जाए? हार मान ली जाए या फिर आगे बढ़ा जाए?
इस कठिन सवाल का उत्तर आज से हजारों वर्ष पहले श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में दिया था — भगवद गीता के रूप में।
गीता का मूल संदेश: कर्म करते रहो
भगवद गीता कहती है:
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन”
अर्थात् — तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल में नहीं।
जब जीवन में कुछ भी काम न कर रहा हो, तब गीता हमें यह सिखाती है कि हमें अपने प्रयासों को नहीं छोड़ना चाहिए। हम नतीजों के लिए नहीं, अपने कर्तव्य के लिए कर्म करें।
आत्मबल और आत्मज्ञान
जब जीवन ठहर जाता है, तो आत्मबल ही वो शक्ति है जो हमें दोबारा खड़ा करती है। गीता हमें आत्मा की अमरता, आत्म-स्वरूप और जीवन के उद्देश्य की याद दिलाती है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तुम शरीर नहीं, आत्मा हो — जो कभी मरती नहीं, कभी डरती नहीं।
डिप्रेशन और असमंजस का इलाज
गीता सिर्फ धार्मिक ग्रंथ नहीं है, बल्कि यह एक मनोवैज्ञानिक चिकित्सा है। जब अर्जुन युद्ध से डरता है, तब श्रीकृष्ण उसे सिर्फ प्रेरणा नहीं देते, बल्कि उसे आत्मबोध और कर्तव्य की याद दिलाते हैं। आज के समय में जब युवा अवसाद, विफलता और अकेलेपन से जूझ रहे हैं, तब गीता उन्हें नई दृष्टि देती है।
परिवर्तन का समय
जब कुछ भी काम नहीं कर रहा हो, तो वह समय आत्ममंथन का होता है। गीता कहती है कि कठिनाइयाँ स्थायी नहीं होतीं। हर रात के बाद सुबह होती है। हर युद्ध के बाद शांति आती है। हमें बस अपने भीतर झाँकना है, अपने लक्ष्य को पहचानना है और निडर होकर आगे बढ़ना है।
निष्क्रियता नहीं, निष्कामता
गीता कभी भी निष्क्रिय रहने को नहीं कहती। वह कहती है — “निष्काम कर्म करो।”
मतलब, बिना किसी स्वार्थ या अपेक्षा के कर्म करते रहो। यह मार्ग धीरे-धीरे मन को शांत करता है और सफलता के द्वार खोलता है।