भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में वक्फ संशोधन अधिनियम 2025 पर अंतरिम आदेश सुरक्षित रख लिया है, जिससे देशभर में इस कानून को लेकर बहस और चर्चाएं तेज हो गई हैं। तीन दिनों तक चली सुनवाई के दौरान, अदालत ने इस अधिनियम की संवैधानिकता और इसके प्रभावों पर गहन विचार-विमर्श किया।
मुख्य मुद्दे और अदालत की टिप्पणियाँ
सुनवाई के दौरान, वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने तर्क दिया कि वक्फ एक धार्मिक समर्पण है, जिसे हिंदू धर्म में मोक्ष की अवधारणा से तुलना की जा सकती है। मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई ने इस तुलना को स्वीकार करते हुए कहा कि यह मुद्दा धार्मिक स्वतंत्रता और संपत्ति अधिकारों से जुड़ा हुआ है।
केंद्र सरकार का रुख
केंद्र सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अदालत को आश्वस्त किया कि अगले आदेश तक वक्फ परिषदों में कोई नई नियुक्ति नहीं की जाएगी और ‘वक्फ बाय यूजर’ या ‘वक्फ बाय डीड’ संपत्तियों को डिनोटिफाई नहीं किया जाएगा। सरकार ने यह भी कहा कि अधिनियम की वैधता पर निर्णय लेने से पहले अदालत को सभी पहलुओं पर विचार करना चाहिए।
याचिकाकर्ताओं की आपत्तियाँ
याचिकाकर्ताओं ने अधिनियम की कुछ धाराओं को संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 के उल्लंघन के रूप में देखा है, जो धार्मिक स्वतंत्रता और धार्मिक संस्थानों के प्रबंधन के अधिकारों की गारंटी देते हैं। उन्होंने ‘वक्फ बाय यूजर’ की अवधारणा को समाप्त करने और वक्फ बोर्डों में गैर-मुस्लिम सदस्यों की नियुक्ति पर आपत्ति जताई है।
केरल सरकार का विरोध
केरल सरकार ने भी इस अधिनियम का विरोध किया है, यह कहते हुए कि यह राज्य के अधिकारों में हस्तक्षेप करता है और धार्मिक स्वतंत्रता पर आघात करता है। उन्होंने अदालत से अधिनियम की वैधता की गहन समीक्षा की मांग की है।
आगे की राह
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को एक सप्ताह के भीतर अपना जवाब दाखिल करने का निर्देश दिया है, जबकि याचिकाकर्ताओं को पांच दिनों के भीतर अपनी प्रतिक्रिया देने को कहा गया है। अगली सुनवाई 5 मई को निर्धारित की गई है, जिसमें अदालत इस महत्वपूर्ण मामले पर अपना अंतिम निर्णय सुना सकती है।
यह मामला न केवल वक्फ संपत्तियों के प्रबंधन से संबंधित है, बल्कि यह धार्मिक स्वतंत्रता, अल्पसंख्यक अधिकारों और संविधान की मूल भावना से भी जुड़ा हुआ है। अदालत का निर्णय इन सभी पहलुओं पर गहरा प्रभाव डाल सकता है।